हिन्दी गद्य के विकास का संक्षिप्त परिचय

गद्य का स्वस्‍स्तप 

प्रकृति ने मनुष्य को अभिव्यक्ति की अद्भुत क्षमता दी है। भाषा के माध्यम से वह अपने भावों, विचारों और अनुभूतियों को या तो गद्य के रूप में व्यक्त करता है या पद्य के रूप में। 
गद्य के रूप में अपने विचारों एवं भावों को अभिव्यक्त करना सरल होता है, इसकी भाषा की प्रकृति व्यावहारिक होती है, इसलिए वक्ता जो कुछ सोचता या महसूस करता है, उसे गद्य में तत्काल अभिव्यक्त कर देता है। 

••हिन्दी गद्य का आविर्भाव ••

हिन्दी गद्य का आविर्भाव (उत्पत्ति) मुख्यतः उन्‍नीसवीं शताब्दी के नवजागरण काल * में हुआ, जब हमारा देश मध्यकालीन रूढ़ियों से मुक्त होने का प्रयास और नवीन सांस्कृतिक चेतना को आत्मसात्‌ कर रहा था। हमारे जीवन पर नवीन विचारों, नवीन शिक्षा पद्धति और नए वैज्ञानिक आविष्कारों का प्रभाव पड़ रहा था। इससे उन्‍नीसवीं शताब्दी में हिन्दी गद्य साहित्य, आधुनिकता का संवाहक होकर निकला। 

हिन्दी गद्य के प्राचीनतम प्रयोग राजस्थानी एवं ब्रजभाषा में मिलते हैं। राजस्थानी गद्य हमें दसवीं शताब्दी से मिलना शुरू होता है। ब्रजभाषा के गद्य का सूत्रपात विक्रम संवत्‌ 1400 के आस-पास हुआ। सत्रहवीं शताब्दी तक हमें निम्नलिखित रचनाएँ प्राप्त होती हैं 

                         ||रचनाएँ और लेखक ||

रचनाएँ                                                 लेखक 

शृंगार रस मण्डन                =           गोस्वामी विदृठलनाथ चौरासी वैष्णवन की वार्ता      =          गोकुलनाथजी 
दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता      =   गोकुलनाथ जी 
अष्टयाम                         =              नाभादास
अगहन-महात्म्य                 =            बैकुण्ठमणि शुक्ल
वैशाख-महात्म्य                   =          बैकुण्ठमणि शुक्ल 

••खड़ी बोली गद्य का विकास• 

खड़ी बोली का विकास दसवीं शताब्दी से माना जाता है। इसका प्रयोग हेमचन्द सूरी के व्याकरण ग्रन्थ, नरपति नाल्‍्ह, अमीर खुसरों और कबीर की रचनाओं में हुआ है। खड़ी बोली गद्य के प्रथम दर्शन अकबर के दरबारी कवि गंग की रचनाओं . तथा स्वामी प्राणनाथ के ग्रन्थों में होते हैं, परन्तु इसका वास्तविक प्रादुर्भाव उनन्‍नीसवीं शताब्दी से ही माना जाना चाहिए। इसके पश्चात तो खड़ी बोली का प्रयोग बढ़ता ही चला गया। खड़ीबोली गद्य के विकास सम्बन्धी कुछ रचनाए निम्नलिखित हैं 

   रचनाए                                                    रचनाकार 
      👇                                                          👇
शब्दनुशसन                                             हेमचन्द सूरी बीसलदेव रासो                                         नरपति नाल्‍्ह पहेलियाँ मुकरियाँ                                     अमीर -खुसरो साखियाँ (बीजक)                                    कबीरदास
चन्द छन्‍्द बरनन की महिमा, कुतुबशतक         गंग 

••हिन्दी खड़ी बोली गद्य का विकास ••

हिन्दी खड़ी बोली गद्य के विकास को निम्नलिखित चरणों में विभाजित कर इसका अध्ययन किया जाता है 

1. भारतेन्दु युग (सन्‌ 1868-1900) उन्‍नीसवीं शताब्दी के मध्य में देश के क्षितिज पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का उदय हुआ। अनोखी प्रतिभा और महान्‌ व्यक्तित्व के धनी भारतेन्दु जी ने हिन्दी गद्य का स्वच्छ, सन्तुलित और शिष्ट रूप सामने रखा। उन्होंने अपने लेखों में संस्कृत के सरल शब्दों के साथ-साथ प्रचलित विदेशी शब्दों का भी प्रयोग किया। इसके अतिरिक्त मुहावरों और कहावतों के माध्यम से भाषा को सजीवता प्रदान की गई। इससे आधुनिकता के जनक भारतेन्दु के नेतृत्व में हिन्दी साहित्य को नए आयाम प्राप्त हुए। इस युग के प्रमुख लेखक निम्न हैं लाला श्रीनिवासदास (सन्‌ 1851-1887), बालकृष्ण भट्ट (सन्‌ 1844-1914), प्रतापनारायण मिश्र (सन्‌ 1856-1934), राधाकृष्ण दास (सन्‌ 1869-1907), कार्तिकप्रसाद खत्री (सन्‌ 1851-1904), राधाचरण गोस्वामी (सन्‌ 1853-1925), बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' (सन्‌ 1855-1923) आदि। 

2. द्विवेदी युग (सन्‌ 1900 से 1922) भारतेन्दु युग के उपरान्त महावीर प्रसाद , द्विवेदी ने हिन्दी गद्य के निर्माण एवं प्रसार के लिए स्तुत्य कार्य किया। उन्होंने . इण्डियन प्रेस, प्रयाग से “सरस्वती” नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन किया। इसके माध्यम से उन्होंने भाषा के परिमार्जन का कार्य किया। इसी युग में विविध प्रकार की भाषा-शैलियों के जन्म के साथ-साथ गद्य के विविध रूपों का विकास हुआ। इस युग के प्रमुख लेखक निम्न हैं 
गद्य लेखक प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, बालमुकुन्द गुप्त, पद्मसिंह शर्मा, बाबू श्यामसुन्दर दास, रामचन्द्र शुक्ल, पूर्णसिंह, यशोदानन्दन अखौरी आदि। 

'उपन्यासकार'  मुंशी प्रेमचन्द, किशोरीलाल गोस्वामी, गोपालराम गहमरी, वृन्दावनलाल वर्मा, विश्वम्भरनाथ कौशिक, आचार्य चतुरसेन शास्त्री आदि।
"कहानीकार"  प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, चन्द्रधर शर्मा “गुलेरी', सुदर्शन, जैनेन्द्र कुमार, उग्र, कौशिक, अज्ञेय, चतुरसेन शास्त्री, भगवतीप्रसाद वाजपेयी, भगवतीचरण वर्मा, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, इलाचन्द्र जोशी, अमृतलाल नागर आदि। 
"नाटककार" लक्ष्मीनारायण मिश्र, हरिकृष्ण प्रेमी, रामकुमार वर्मा, उदयशंकर भट्ट, उपेन्द्रनाथ “अश्क' आदि। 

3. शुक्ल युग (छायावादी युग) (सन्‌ 1918-20 से 1938) द्विवेदी युग के बाद हृदय की गूढ़तम वृत्तियों को व्यक्त करने की क्षमता छायावादी युग के गद्य में दिखाई पड़ती है। इस युग के लेखकों ने गद्य को आकर्षक रूप में प्रस्तुत किया। इन लेखकों में प्रमुख हैं 
जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा आदि। | 

4. शुक्‍्लोत्तर युग (प्रगतिवादी युग) (सन्‌ 1938-1947) इस युग में सहज, व्यावहारिक और अलंकारविहीन गद्य की प्रतिष्ठा हुई। अब गद्य में भावुकतापूर्ण अभिव्यक्ति का स्थान सतेज (कान्तियुक्त) और चुटीली उक्तियों ने ले लिया था। इस युग के प्रमुख लेखकों में पद्मसिंह शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी, महादेवी वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, कन्हैयालाल मिश्र “प्रभाकर आदि हैं। इस युग की कुछ रचनाएँ और उनके लेखक निम्नलिखित हैं 

लेखक                                              रचनाएँ 

अमृतराय              =                         कलम का सिपाही 

डॉ. रामविलास शर्मा         =         निराला की साहित्य                                                         साधना 

पाण्डेय बेचन शर्मा “उग्र'         =     अपनी खबर 

हरिवंशराय बच्चन          =           क्या भूलूँ क्‍या याद करूँ, 
                                             नीड़ का निर्माण फिर 

5. वर्तमान युग या स्वातन्त्रयोत्तर= युग वर्तमान युग में निबेन्ध, नाटक, कहानी एवं उपन्यास के अतिरिक्त अनेक विधाओं में रचनाएँ की जा रही हैं। इससे हिन्दी गद्य का स्वरूप निरन्तर विकसित हो रहा है। इस युग के रचनाकारों में प्रमुख हैं विष्णु प्रभाकर, जगदीशचन्द्र माथुर, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, जैनेन्द्र कुमार, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय, भगवतीचरण वर्मा, मन्‍्नू भण्डारी, यशपाल, अमृतलाल नागर, हरिशंकर “परसाई” आदि। 

गद्य की विविध विधाएँ : एक परिचय हिन्दी गद्य साहित्य के आविर्भाव से लेकर अब तक अनेक विधाएँ विकसित हुई हैं। इन विधाओं में निबन्ध, कहानी, नाटक, एकांकी, उपन्यास, जीवनी, आत्मकथा, यात्रा साहित्य, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, डायरी, भेंटवार्ता, पत्र साहित्य, आलोचना, गद्य-काव्य व लघुकथा मुख्य हैं। इन विधाओं का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है 

1. निबन्ध यह गद्य की महत्त्वपूर्ण एवं विकसित विधा है। आलोचकों ने निबन्ध को “गद्य की कसौटी” कहा है। 

2. कहानी आधुनिक साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा कहानी है। यह किसी पात्र, घटना, भाव, संवेदना आदि की मार्मिक अभिव्यंजना करती है। इसका शीर्षक आकर्षक एवं रोचक होता है। | 

3. उपन्यास वर्तमान हिन्दी साहित्य की सर्वप्रिय विधा उपन्यास है, इसमें साहित्य की सभी विधाओं को सन्निहित करने की क्षमता होती है। उपन्यास में कथा के साथ काव्य की भावुकता और संवेदना जाग्रत कर पाठकों को एकाग्र करने की क्षमता होती है। 

4. नाटक नाटक शब्द की उत्पत्ति “नट' धातु से हुई है, जिसका अर्थ है“भावों का प्रदर्शन1 नट (अभिनेता) से अभिनीत होने के कारण इस नाटक कहा जाता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ऐसे नाटककार थे, जिन्होंने सामाजिक, राजनैतिक, पौराणिक और प्रेम प्रधान सभी प्रकार के नाटक लिखे। 

5. एकांकी एकांकी नाटक का वह स्वरूप है, जिसमें एक ही अंक में सम्पूर्ण नाटक समाप्त हो जाता है। 

6. जीवनी जीवनी साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधा है, जिसमें किसी महापुरुष के जीवन की घटनाओं, उसके कार्य-कलापों तथा अन्य गुणों का आत्मीयता, औपचारिकता एवं गम्भीरता से व्यवस्थित रूप में वर्णन किया जाता है। 

7. आत्मकथा आत्मकथा भी जीवनी के समान ही: लोकप्रिय विधा है। लेखक स्वयं अपने जीवन की कथा को पाठकों के समक्ष आत्मीयता से रखता है। 

8. रेखाचित्र रेखाचित्र अंग्रेजी के स्केच का अनुवाद है, जो 'रेखा” और “चित्र' के मेल से बना है। इसमें कलात्मक शब्दों द्वारा किसी व्यक्ति, वस्तु या घटना के बाह्य तथा आन्तरिक स्वरूप का चित्रण किया जाता है। 

9.संस्मरण संस्मरण में लेखक स्वयं अपनी अनुभव की हुई किसी वस्तु, व्यक्ति तथा घटना का आत्मीयता एवं कलात्मकता से वर्णन करता है। 

10.यात्रा साहित्य यात्रा साहित्य एक रोचक एवं मनोरंजक विधा है, जिसमें लेखक विशेष स्थलों की यात्रा का सरस और सुन्दर वर्णन करता है। 

11.भैंटवार्ता भेंटवार्ता को भेंट, चर्चा, विशेष परिचर्चा, साक्षात्कार, इण्टरव्यू आदि 

नामों से भी जाना जाता है। यह वह विधा है, जिसके माध्यम से भेंटकर्ता किसी महान्‌ व्यक्ति के मन और जीवन में प्रश्नों के झरोखे से झाँककर उसके . आन्तरिक दृष्टिकोण को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। 

12.पत्र साहित्य जब लेखक अपने किसी मित्र, परिचित आदि को कुछ बताने या उसके बारे में जानने के लिए कुछ लिखता है, तो इससे पत्र साहित्य का सृजन होता है। 

13.डायरी डायरी लेखन का आरम्भ सन्‌ 1930 के आस-पास माना जाता है। नरदेव शास्त्री को प्रथम डायरी लेखक माना जाता है। उनकी “नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ की जेल डायरी' के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी में इसका लेखन शुरू हुआ। 

14.रिपोर्ताज रिपोर्ताज हिन्दी के रिपोर्ट का पर्यायवाची है, इसमें किसी घटना का वर्णन किया जाता है, जिमसे पाठक प्रभावित होता है। 

15.आलोचना आलोचना का अर्थ है-किसी पदार्थ, तथ्य आदि की जाँच सही रूप में करना या भली प्रकार से उसके गुण-दोष को जाँचना। इसका व्यवस्थित सूत्रपात द्विवेदी युग से आरम्भ होता है। 

16.गद्य-काव्य यह काव्य और गद्य के बीच की विधा है, जिसके माध्यम से भावपूर्ण विषय की काव्यात्मक अभिव्यक्ति होती है। इसमें लेखक अपनीहृदय-संवेदना इस प्रकार अभिव्यक्त करता है कि पाठक पढ़कर रसमय हो जाता है।  

17.लघुकथा गद्य के क्षेत्र में यह विधा धीरे-धीरे स्वयं को स्थापित करती जा रही है। इसमें आधुनिक संवेदना की पीड़ा दिखाई देती है। इस विधा के लेखकों में राजेन्द्र यादव, चित्रा मुदूगल, विष्णु नागर, असगर वजाहत आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। 


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